Friday, March 15, 2013

Politicians Are Best Preachers, And Worst Executors

Talk More Do Less        is the Best Mantra For Success.

Art of Preaching Sermons is The ART of Reaching At Top---Politicians Are Best Preachers, And Worst Executors

Every CMD and CEO of every bank preach sermons in all meetings he attends ---All top executive say that there should be full compliance of KYC rules, They say that loan policies should be strictly adhered to while sanctioning a loan proposal, they say that all targets on all parameters like deposit and advance must be achieved by hook or by crook but never takes care whether the field functionaries are following the instructions given by them in true spirit. Rather it is they who verbally and telephonic advise to violate the rules and acquire business. This is why majority of worker violate the rules but top executives are never taken to task.

Our Prime Minister says that people should work honestly and devotedly , he says that there should be control on price, he says that anti-terror bodies should work sincerely, he says that judiciary should decide the pending cases as soon as possible and so on -----------------

PM says that major portion of money under MANREGA is lost in transit--- Sonia Gandhi says that hardly 15 percent of MANREGA fund reaches in the hands  of real beneficiaries-------Even Rahul Gandhi and his Father Rajiv Gandhi told and accepted the bitter truth of corrupt system.

But our clever Prime Minister never bothers whether the system is fit for following his sermons honestly-------

This is Indian politics--------------

Officers who falsely portrays positive picture of his department and about his organisation is immediately promoted ------------------------

There is no one to verify the veracity of tall claims made by top executives and top ranked politicians.--------------

PM says that he will ensure all court start functioning as Fast Track Courts but despite lapse of more than eight years of his rule ,pendency has not come down in any office, not to speak of judiciary only





काम कम, दिखावा ज्यादा


।। जोगिंदर सिंह ।।
(सीबीआइ के पूर्व निदेशक)
- आपराधिक न्याय व्यवस्था को नहीं सुधारने की मुख्य वजह संसद और विधानसभाओं में अपराधियों की बड़ी संख्या होना है. संसद में 153 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. -
हमारी सत्ता ने प्रवचन देने का एक अनूठा तरीका ईजाद किया है, जिसमें कार्रवाई का विकल्प तक नहीं है. एक पुरानी कहावत है- आप कुछ लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं और सभी को कुछ समय के लिए, लेकिन आप सभी को हमेशा के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते. लगता है इसे हमारी लोकतंत्र में भुला दिया गया है.
प्रधानमंत्री ने फरवरी में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करते हुए वकीलों और न्यायपालिका से लोगों को त्वरित न्याय देने की गुजारिश की. उन्होंने यह भी जोड़ा की सरकार न्यायपालिका और अन्य संबद्ध लोगों या संस्था के साथ मिल कर मजबूत और कारगर न्यायिक डिलिवरी सिस्टम बनाने की जिम्मेदारी के प्रति सचेत है.
यह बेहद महत्वपूर्ण है कि खंडपीठ और बार काउंसिल हमारे संवैधानिक उद्देश्यों को मजबूत करें और जब तक यह नहीं होगा, तब तक हम देश के करोड़ों लोगों- खासकर समाज के गरीब तबकों को त्वरित और सस्ता न्याय नहीं दिला पायेंगे. ऐसा लगता है कि सरकार लॉ कमीशन की स्पष्ट सिफारिशों के बावजूद यह नहीं जानती है कि कैसे स्वयं निर्मित चुनौतियों से पार पाया जा सके.
प्रधानमंत्री ने कहा कि अदालतों में, खासकर ट्रायल न्यायालयों में लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या चिंता का बड़ा कारण है. उन्होंने सभी कानूनविदों से गुजारिश की कि वे अपने ज्ञान, अनुभव और क्षमता का उपयोग इस समस्या का समाधान खोजने के लिए करें. देश की विभिन्न अदालतों में कुल लंबित 3 करोड़ मुकदमों में केंद्र और राज्य सरकारों की हिस्सेदारी 70 फीसदी है. यानी भारत में सबसे बड़ी याचिकाकर्ता सरकार है. अब केंद्र सरकार ने नेशनल लिटिगेशन पॉलिसी(एनलीपी) बनायी है, जिससे अगले चार साल में सरकारों पर से यह तमगा हट सके और अदालतों का बोझ कम हो सके.
हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री इस बात से अवगत हैं कि प्रथम द्रष्टया 90 फीसदी मामलों में सरकार को अपील नहीं करनी चाहिए. इनमें से 95 फीसदी मामलों में उसे वैसे भी मुंह की खानी पड़ती है. जब दो तिहाई मामले सरकार के कारण हैं, तो ऐसे में अदालतों के पास आम लोगों की शिकायतों को सुनने का वक्त कहां है! मौजूदा समय में जजों के कुल 17,945 स्वीकृत पदों के साथ निचली अदालतें 3.32 करोड़ लंबित मामले निबटाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. लगभग 3,650 जजों के पद रिक्त पड़े हैं.
भारत में जज और आबादी का अनुपात कई विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है. लॉ कमीशन ने 1987 में प्रति दस लाख व्यक्ति पर जजों की संख्या 10.5 बतायी थी और इसे तत्काल प्रभाव से बढ़ा कर 50 और वर्ष 2000 तक 100 तक करने की सिफारिश की थी. इन सिफारिशों को फरवरी 2002 में संसद की स्थायी समिति ने भी दोहराया था. मौजूदा समय में स्वीकृत पदों के अनुसार प्रति दस लाख आबादी पर 9.5 जज हैं, जबकि अमेरिका में 1999 में यह अनुपात दस लाख पर 104 का था.
निचली न्यायपालिका में जजों की कम संख्या के लिए इसका राज्य सूची का विषय होने का बहाना बनाया जाता है. ऐसे कई मंत्रालय और योजनाएं हैं, जिसका संचालन केंद्र सरकार करती है. हालांकि वे भी राज्यों के विषय हैं. ऐसी कई योजनाएं हैं, जिन्हें अगर सरकार खत्म कर दे, तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा.
इस बचे हुए पैसे का इस्तेमाल आपराधिक न्याय व्यवस्था के साथ ही ढांचागत सुविधाओं को बेहतर करने के लिए किया जा सकता है. सरकार को कुछ फिजूल के मंत्रालयों को खत्म करने की जरूरत है, क्योंकि सभी योजनाओं का क्रियान्वयन राज्य सरकारें करती हैं. वहां भी ऐसे मंत्रालय हैं.
बांग्लादेश में भी प्रति दस लाख की आबादी पर 12 से 13 जज हैं. भारत सरकार तब तक अपने आप काम नहीं करती, जब तक संकट पैदा नहीं हो जाये. लोगों के दबाव में सरकार बलात्कारियों को फांसी की सजा देने की मांग मान गयी. वह जानती है कि 1863 में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित कानून न केवल बर्बर हैं बल्कि बेकार हो चुके हैं. लेकिन वह इसे खत्म करने की कोशिश नहीं करती है. देश में केवल कानून की समस्या नहीं है.
सबसे बड़ी चुनौती पर्याप्त लोगों के बगैर कुशलता से काम करने की है. देश के कुल 22 उच्च न्यायालयों में जजों के 895 पद स्वीकृत हैं, जिसमें 282 रिक्त पड़े हैं. अगर जज ही नहीं होंगे तो न्याय कौन करेगा! सरकार जजों के पद ग्रहण करने और सेवानिवृत्ति की तारीख जानती है. फिर क्यों नहीं तीन साल पहले नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है? लाखों वकील हैं जो हाइकोर्ट का जज बनने की पात्रता रखते हैं.
यही हाल निचली अदालतों का है, जहां कुल 17,945 पद स्वीकृत हैं, जिनमें लगभग 20 फीसदी यानी 3,650 पद खाली पड़े है. अगर मौजूदा प्रक्रिया पदों को भरने के अयोग्य है, तो इसे खत्म कर नयी प्रक्रिया बनाना अच्छा है. यही समय है कि एक ऐसी व्यवस्था बने जो परिणाम देनेवाली हो.
दुर्भाग्य है कि सरकार और अधिकांश नौकरशाह उन कानूनों या नियमों का हवाला देते हैं जो परिणाम नहीं देते है. एक बार मैंने एक कद्दावर मंत्री से पूछा आखिर क्यों केंद्र सरकार व्यवस्था को आसान नहीं बनाती है! उन्होंने रटा-रटाया जबाव दिया कि आपराधिक न्याय व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है. मैंने पूछा कि फिर क्यों ऐसे मंत्रालय हैं जो पूरी तरह राज्यों के विषयों में हैं. इसका उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया.
मेरा मानना है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था को नहीं सुधारने की एक मुख्य वजह संसद और विधानसभाओं में अपराधियों की बड़ी संख्या होना है. उनके शपथ पत्रों के ही मुताबिक संसद में 153 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. मौजूदा उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुल 403 विधयाकों में 189 दागी हैं. उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र है, जहां 287 में 146 और बिहार में 243 में 139 दागी हैं.
राष्ट्रपति चुनाव में दागी वोटों पर गौर करें तो झारखंड में सबसे अधिक 74 फीसदी, बिहार में 58 फीसदी और महाराष्ट्र में 51 फीसदी दागी वोट पड़े. हमें हमेशा इन बुराइयों के लिए लोकतंत्र और राजनेताओं को दोष नहीं देना चाहिए. मेरा विचार है कि गुड गवर्नेस में सभी नागरिकों के भागीदारी जरूरी है.
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम इतिहास से बच नहीं सकते. गुड गवर्नेंस कभी कानून पर निर्भर नहीं करता. यह शासन करनेवाले की व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है. सरकार की मशीनरी हमेशा  इसे चलानेवालों की इच्छाशक्ति से संचालित होती है. हालांकि इतिहास उन्हें माफ नहीं करता जो इसकी अनदेखी करते हैं.



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