Saturday, September 14, 2013

Origin Of Rupee Fall Lies In Dependence On Foreign Fund

रुपये को खा गया विदेशी निवेश
Prabaht Khabar
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(अर्थशास्त्री)

देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपतकम और निवेश अधिक करने होंगेविदेशी निवेश से प्राप्तरकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिएकिया जायेगातभी रुपया स्थिर होगा.
रुपये में आयी गिरावट का मूल कारण हमारे नेताओं काविदेशी निवेश के प्रति मोह हैविदेशी निवेश को आकर्षितकरके देश को रकम मिलती रहीदेश की सरकार इस रकमका उपयोग मनरेगा या भोजन का अधिकार जैसी योजनाओंके लिए या फिर सरकारी कर्मियों को बढ़े वेतन देने के लिएकरती रहीसाथ ही भ्रष्टाचार के माध्यम से इसका रिसाव भीकरती रही.
2002 से 2011 तक यह व्यवस्था चलती रहीमान लीजिए विदेशी निवेशकों ने 100 डॉलर भारत लाकर जमाकियासरकार ने इससे गेहूं का आयात किया और भोजन के अधिकार की पूर्ति के लिए इसे वितरित कियागेहूंखत्म हो गयालेकिन ऋण खड़ा रहाविदेशी निवेश हमारे ऊपर एक प्रकार का ऋण होता हैअपनी रकम विदेशीनिवेशक कभी भी वापस ले जा सकते हैं.

जिस प्रकार उद्यमी बैंक से ऋण लेता हैउसी तरह देश भी विदेशी निवेशकों से ऋण लेता हैदस वर्षो तक विदेशीनिवेश आता रहा और देश पर ऋण चढ़ता रहालेकिन कब तकजैसे व्यक्ति शराब पीता ही जायेतो एक क्षणऐसा आता है जब वह बेहोश हो जाता हैइसी प्रकार विदेशी निवेश के बढ़ते ऋण से रुपया बेहोश हो गया है.
ऐसा लगता है कि सरकार को इस परिस्थिति का पूर्वाभास हो गया थाइसीलिए पिछले एक वर्ष से विदेशी निवेशको आकर्षित करने के विशेष प्रयास किये गये हैंविदेशी निवेश दो प्रकार का होता हैप्रत्यक्ष एवं संस्थागत.प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइमें निवेशक भारत में कारखाना लगाता हैजैसे फोर्ड ने चेन्नई में कार बनानेका कारखाना लगायाअथवा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारतीय कंपनी को खरीदा जाता है.

जैसे जापानी निवेशक ने रेनबैक्सी को खरीद लियाप्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने में समय लगता हैइसके वापसजाने में भी समय लगता हैचूंकि निवेशक को अपनी फैक्ट्री आदि बेचनी पड़ती हैदूसरे प्रकार का विदेशी निवेशसंस्थागत कहा जाता हैइसमें किसी विदेशी संस्था द्वारा भारत में शेयर बाजार में निवेश किया जाता हैयहरकम शीघ्र आवागमन कर सकती हैचूंकि शेयर को खरीदना एवं बेचना एक क्लिक से हो जाता है.

सरकार चाहती है कि दोनों में से कोई भी विदेशी निवेश आयेशेयर बाजार में आनेवाले संस्थागत निवेश कासरकार पर वश नहीं चलता हैलेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए नीति बनायी जा सकतीहैसरकार ने सोचा कि देश को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल देंगेतो निवेशक को भारत पर भरोसा बनेगा.
वे सोचेंगे कि विदेशी कंपनियों के आगमन से भारत की अर्थव्यवस्था कुशल हो जायेगीअर्थव्यवस्था की इसकुशलता के चलते संस्थागत निवेश भी आता रहेगाइस योजना को लागू करने के लिए गये बीते समय में सरकारने रक्षाटेलीकॉम तथा बीमा के क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा में वृद्घि की है.

पहले रक्षा क्षेत्र में 25 प्रतिशत से अधिक मिल्कियत विदेशी कंपनी द्वारा हासिल नहीं की जा सकती थीअब इससेज्यादा की जा सकती हैटेलीकॉम क्षेत्र में पहले 74 प्रतिशत विदेशी निवेश किया जा सकता थाअब 100 प्रतिशतकिया जा सकेगाबीमा क्षेत्र में सीमा 25 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत कर दी गयी हैसोच थी कि इनसीमाओं को बढ़ाने से विदेशी निवेशकों की रुचि बढ़ेगीज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आयेगापीछे-पीछे संस्थागतविदेशी निवेश भी आयेगा और भारत की अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.

इन सुधारों के कारण अधिक मात्र में विदेशी निवेश आयेगा और यह अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट से हमें तारनेका काम करेगाइसमें मुङो संशय थापहला कारण यह कि नयी फैक्ट्रियों को लगाने के लिए विदेशी निवेश आनेमें समय लगता हैमान लीजिए कोई टेलीकॉम कंपनी भारत में धंधा करना चाहती है.

इसके लिए सबसे पहले सर्वे करायी जायेगीउसकी रिपोर्ट बनेगीबैंकों से अनुबंध होगासरकार से लाइसेंस लियाजायेगाइसके बाद 2-3 साल में रकम धीरे-धीरे भारत आयेगीअतइस सुधार से वर्तमान संकट में राहत मिलनेकी संभावना कम ही हैदूसरा कारण कि लाभांश प्रेषण का भार बढ़ रहा था.
भारत में पूर्व में किये गये विदेशी निवेश पर विदेशी कंपनियां लाभ कमाती हैंसमय क्रम में वे इस लाभ कोअधिक मात्र में अपने मुख्यालय भेजना शुरू कर देती हैं. 2010 में 4 अरब डॉलर
2011 में 8 अरब डॉलर और2012 में 12 अरब डॉलर लाभांश वापसी के रूप में बाहर भेजे गयेइससे हमारी अर्थव्यवस्था ज्यादा दबाव मेंआती हैआयातों के साथ-साथ हमें लाभांश प्रेषण के लिए भी डॉलर कमाने पड़ते हैं.
आगामी समय में यह रकम तेजी से बढ़ेगीविदेशी निवेश खोलने से हमें कुछ रकम मिलेतो भी बढ़ते लाभांशप्रेषण से यह कट जायेगीरिटेल और उड्डयन में विदेशी निवेश पहले खोला जा चुका थालेकिन आवक शून्यरहीटेलीकाम आदि क्षेत्रों में भी यही परिणाम रहा.

इस प्रकार नये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लगातार आकर्षित करने की मनमोहन सिंह की नीति फेल हो गयी,लेकिन पूर्व में आये विदेशी निवेश का भार यथावत रहाविदेशी निवेशकों को दिखने लगा कि भारत सरकार नेऋण लेकर घी पीने की नीति को अपना रखी हैपिछले माह वह बिंदु आया कि विदेशी निवेशकों ने अपना पैसावापस ले जाना शुरू कर दिया और रुपया बेहोश होकर तेजी से टूटने लगा.

इसलिए मूल समस्या मनमोहन सरकार की ऋण लेकर घी पीने की नीति की हैसरकार की नीति कोलकाता कीशारदा चिट फंड से भिन्न नहीं हैशारदा के मालिक नये धारकों से रकम जमा कराते रहे और पुराने की रकमअदा करते रहेकंपनी घाटे में चल रही थीपरंतु यह तब तक नहीं दिखाजब तक नयी रकम आती रहीइसीप्रकार जब तक विदेशी निवेश आता रहातब तक घाटे में चल रही भारत सरकार जश्न मनाती रहीअब गुब्बाराफूट चुका है और रुपया लुढ़क रहा है.

मेरा अनुमान है कि रुपया 70 रुपये प्रति डॉलर के नजदीक स्थिर हो जायेगालेकिन इससे अल्पकालिक राहतमिलेगीदेश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे.विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगातभी सही मायने मेंरुपया स्थिर होगा.

अर्थव्यवस्था का निराशाजनक प्रबंधन

डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये में गिरावट का दौर जारी है. रुपये की गिरावट की एक बड़ी वजह अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मजबूत होना और वैश्विक निवेशकों का अमेरिका की ओर रुख करना बताया जा रहा है. 

डॉलर में मजबूती एक तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए राहत की खबर है. यह इस बात का संकेत बताया जा रहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर से खतरे के बादल धीरे-धीरे छंट रहे हैं. लेकिन इसे एक विचित्र विरोधाभास ही कहा जायेगा कि अमेरिकी अर्थव्यवथा चाहे मजबूत हो या कमजोर, दोनों ही हालात में हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती नजर आती है. इससे पहले 2007-08 में अमेरिकी में सब प्राइम संकट के बाद आयी मंदी ने बाकी मुल्कों की ही तरह भारत पर भी अपना असर डाला.

लंबे अरसे से विकास की डगर पर छलांग लगाती भारतीय अर्थव्यवस्था में तब पहली बार रुग्णता के लक्षण प्रकट हुए थे. अब जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के वापस पटरी पर लौटने की खबर मिल रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था संभलने की जगह अपनी चमक गंवाती हुई ही नजर आ रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारतीय रुपये के मूल्य में पिछले दो महीने से भी कम समय में करीब 15 फीसदी की गिरावट आ चुकी है.

आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये में गिरावट का दौर अभी जारी रह सकता है और यह प्रति डॉलर 65 के स्तर तक पहुंच सकता है. चिंता की बात यह है कि भारत का केंद्रीय बैंक रुपये में आ रही इस गिरावट को रोकने में अक्षम नजर आ रहा है. वास्तव में इसकी वजह भारतीय मुद्रा भंडार में आयी गिरावट और मुद्रा भंडार की तुलना में लघु अवधि के बाहरी ऋणों में बढ़ोतरी है. पिछले महीने आरबीआइ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत का कुल लघु आवधिक ऋण कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 59 फीसदी है.

जाहिर है, आरबीआइ के पास बाजार में डॉलर बेचने का विकल्प सीमित हो गया है. यह संकट इस कारण भी गंभीर है, क्योंकि भारत का चालू खाते का घाटा खतरनाक स्तर तक बढ़ चुका है और इस घाटे को पाटने के लिए लघु अवधि के ऋण लेने के अलावा ज्यादा विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता. यानी जिस संकट को बाहरी कारक से जोड़ा जा रहा है, वह वास्तव में अर्थव्यवस्था के निराशाजनक प्रबंधन और पिछले दस वर्षो के दौरान अपनायी गयी गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा है. आश्चर्यजनक यह है कि इस तथ्य को स्वीकारने और जरूरी कदम उठाने की जगह हमारे  नीति-निर्माता इसे बाहरी संकट बता कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते ज्यादा दिख रहे हैं.

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