Saturday, September 28, 2013

Who ARE Breaking Nation?

कौन तोड़ रहा है, देश?------------हरिवंश की कलम से


।।हरिवंश।।
देश टूटने की ओर है. कैसे? कौन तोड़ रहा है? क्यों टूट रहा है? यह जान-बूझ कर हो रहा है, पूर्व तैयारी-साजिश के तहत या बिना सोचे-समझे हमारे कर्मो, अहंकार, ईष्र्या, द्वेष और आपसी टूट का परिणाम है? या निजी श्रेष्ठता बोझ से हम एक-दूसरे को सहने को तैयार नहीं? क्या यह मानस इस टूट प्रक्रिया को बढ़ा रहा है? इस मीनमेख या माइक्रो एनालिसिस (सूक्ष्म विश्लेषण) में गये बिना यह जान लें कि इन सबका मिला-जुला परिणाम है कि मुल्क लगातार टूट की ओर बढ़ रहा है. खोखला हो रहा है? एक-एक कर देश चलानेवाली संस्थाएं तोड़ी जा रही हैं.खुलेआम. सार्वजनिक जीवन में न शर्म रही, न भय, न लोकलाज. बारीकी से समझने की जरूरत है. देश चलानेवाली नौकरशाही की रीढ़ तोड़ी जा रही है. उसका आत्मस्वाभिमान तोड़ कर. जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदली जानेवाली है, ताकि नेताओं के चहेते जज बन सकें. इससे न्यायपालिका की स्वायत्तता एवं व्यवस्था व सरकार पर न्याय का अंकुश खत्म हो जायेगा.

इमरजेंसी के पहले कांग्रेस सांसद शशिभूषण ने ‘कमिटेड ब्यूरोक्रेसी’, ‘कमिटेड ज्यूडिशियरी’ की बात की थी. आज खुले लोकतंत्र में यह प्रयोग हो रहा है. आपराधिक नेताओं को बचाने के लिए अध्यादेश लाया गया है. सार्वजनिक जीवन में शुचिता की डंके की चोट पर हत्या. अब राहुल गांधी को माजरा समझ में आया है. सीबीआइ, एक -एक कर कांग्रेस के समर्थक भ्रष्ट राजनेताओं को गंभीर आरोपों से बरी कर रही है. क्या इससे संस्था के प्रति विश्वसनीयता, आस्था या निष्पक्षता का बोध रह जायेगा? पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह प्रसंग में भारत सरकार की संवेदनशील सूचनाएं लीक की जा रही हैं. गुजरात के एक फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआइ-आइबी खुलेआम आपस में झगड़ रहे हैं. राजनीतिक दलों की तरह. ऐसे सभी प्रयासों को जोड़ कर देखें, तो एहसास होगा कि देश कैसे टूट की ओर बढ़ रहा है?

तोड़नेवाली इस प्रक्रिया को कुछेक घटनाओं के संदर्भ में समझें. घटना 22.09.13 की है. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के एसएसपी, राजेश मोदक डी राव ने अपने तीन सिपाहियों को पीटा. बुरी तरह. टीवी चैनलों पर उनके शरीर पर लगे जख्म-दाग दिख रहे थे. देश-दुनिया ने यह देखा. पीटे गये सिपाही थे, गुमान सिंह, सुंदर सिंह और दया किशन. इन तीनों ने घटना की लिखित शिकायत डीआइजी से की. इन तीनों का अपराध क्या था?  

संस्थाओं को तोड़ कर क्या बच पायेगा देश!

मुरादाबाद जिला समाजवादी पार्टी के नेता एचटी हसन, एसएसपी से मिलने उनके घर पधारे थे. इन तीनों सिपाहियों पर आरोप है कि इन्होंने, नेताजी को कुछ देर इंतजार कराया. तुरंत उनके आते ही एसएसपी को सूचना नहीं मिली. इसी ‘भयंकर’ अपराध के लिए ये तीनों पीटे गये. लखनऊ के एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी को इन तीनों ने फोन पर रोते हुए इस घटना का ब्योरा दिया.

फर्ज करिए जिला समाजवादी नेता एचटी हसन की जगह, सत्तारूढ़ पार्टी का, लखनऊ का कोई बड़ा नेता आ जाता, तो एसएसपी साहब क्या करते? उनका झोला उठाने वहां पहुंच जाते? कल्पना करिए, जो अफसर शासक दल के सामान्य कार्यकर्ता के सामने बिछ जाते हैं, दंडवत होते हैं, वे शासक दल के उन पदधारी नेताओं को खुश करने के लिए क्या करेंगे? सरकार के मंत्री-मुख्यमंत्री के कहने पर ऐसे अफसर क्या कर सकते हैं? फरजी मुठभेड़ से लेकर लूट तक, वह सब काम जो पहले के राजाओं, जमींदारों, जागीरदारों और आज के बड़े अपराधियों के शूूटर या कारिंदे करते हैं? यानी जिस आइपीएस-आइएएस सेवा को सरदार पटेल ने भारत के संदर्भ में ‘स्टील फ्रेम’ कहा, वह अब किस रूप में तब्दील हो गयी है? रीढ़विहीन, चारण और स्वाभिमानविहीन. नेताओं के कारिंदे के रूप में अफसर. कानून, संविधान से ऊपर, अपना आत्मसम्मान व मान-मर्यादा बेच कर. जब आइपीएस सर्विस के लोग ऐसी हरकत करने लगें, तो समझ लेना चाहिए, मुल्क किस ओर जा रहा है? हालांकि जन-दबाव में सरकार को अपना मुंह छिपाने के लिए उन्हें सस्पेंड करना पड़ा है, पर यह घटना तो एक ट्रेंड की झलक है. ट्रेलर है. हमारी अंदरूनी सरकारी कार्यसंस्कृति की झलक. अब सूचना है कि एसएसपी महोदय की पत्नी, पिटाई के बाद शिकायत करनेवाले तीनों पुलिसकर्मियों को धमका रही हैं. दरअसल आजादी के बाद नौकरशाही के सुधार के लिए ठोस और कठोर कदम उठे ही नहीं. क्यों एक आइएएस-आइपीएस को अर्दली मिलते हैं? सरकारी बाडीगार्ड मिलते हैं? खाना बनानेवाले मिलते हैं? एक-एक अफसर, दर्जनों सिपाहियों का शोषण करता है. क्या यह लोकतंत्र में सहन होना चाहिए? और ऊपर से गुलाम की तरह व्यवहार. संयोग है कि जिस दिन एसएसपी के द्वारा अपने सिपाहियों को पीटने (अपराध सिर्फ यह कि एक जिले के नेता को मिलने की सूचना थोड़ी विलंब से दी) की खबर सार्वजनिक हुई, उसी दिन दुर्गा शक्ति (आइएएस) प्रकरण पर भी एक महत्वपूर्ण खबर आयी. दुर्गा शक्ति नागपल अपने आइएएस पति, अभिषेक सिंह के साथ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलीं. फिर उनका सस्पेंशन हटा. टीवी चैनलों पर यह भी खबर आयी कि उन्होंने मिल कर माफी मांगी. यह भी सूचना थी कि वह पहले मुलायम सिंह से मिल कर खेद जता चुकी हैं. सवाल उठता है कि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में किस संवैधानिक पद पर हैं? वह मुख्यमंत्री के पिता हैं, यही उनकी ताकत है. इसलिए एक आइएएस दंपती को पहले मुलायम सिंह से मिलना पड़ता है, फिर अखिलेश यादव के दरबार में हाजिरी देनी पड़ती है. दुर्गा शक्ति नागपाल का अपराध क्या था? एक ईमानदार अफसर, युवा अफसर, जिसके हौसले और सपने थे कि देशनिर्माण में भूमिका अदा करूंगी, उस युवती के सपने की भ्रूणहत्या दो महीने पहले ही हो गयी. पूरा समाज-देश देख रहा है. उस आइएएस युवती ने बालू खनन माफिया के खिलाफ गौतम बुद्ध नगर में अभियान चलाया. उस पर आरोप लगा कि उसने कादलपुर गांव में एक निर्माणाधीन मस्जिद की दीवार गिरा दी. यह बात भी चर्चा में रही कि वह दीवार सार्वजनिक जमीन पर बन रही थी. बाद में जिले के कलक्टर ने रिपोर्ट दी कि नहीं, दुर्गा शक्ति नागपाल ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है. उस मस्जिद के लोगों ने बयान दिया कि उनकी कोई दीवार नहीं गिरायी गयी. पर एक ईमानदार आइएएस अफसर को अपनी नौकरी के लिए, ईमानदारी पर चलने के कारण, अपने स्वाभिमान के विपरीत खेद व्यक्त करना पड़ा. उस भूल के लिए, जो कहीं हुई ही नहीं, उसके लिए माफी. आपने सुना है, कानून पर चलने के कारण, कानून पालन के लिए, आइएएस अफसर (व्यवस्था में यही पद सबसे ताकतवर है) की यह सार्वजनिक गत. बिना अपराध फजीहत.
सरदार पटेल ने आइएएस-आइपीएस या अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों को, देश की एकता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना था. वे हैं भी. आज इस सेवा में मौलिक सुधार की जरूरत है. लोगों को एकांउटेबुल बनाने की जरूरत है, परफारमेंस से नौकरी को जोड़ने की जरूरत है. जो नौकरी करने लायक नहीं हैं, सक्षम नहीं हैं, योग्य और ईमानदार नहीं हैं, व्यवस्था पर बोझ हैं, उन्हें तत्काल नौकरी से हटाये जाने का प्रावधान होना चाहिए. पर इन मौलिक सुधारों के बारे में देश में कहीं चर्चा ही नहीं है. लेकिन इन सब कमियों के बावजूद देश को एकसूत्र में बांधे रखने में आइएएस-आइपीएस अफसरों का अद्भुत योगदान रहा है. अब मुलायम सिंह फरमाते हैं कि सारे आइएएस अफसरों को उत्तर प्रदेश से केंद्र बुला ले. आजम खां भी गरजते हैं कि केंद्र सभी अफसरों को बुला ले. क्या उत्तर प्रदेश मुलायम सिंह या आजम खां की निजी जागीर है? या भारतीय संघ का राज्य है. यह लोकतंत्र है? संविधान में इन आइएएस-आइपीएस अफसरों के लिए प्रावधान है. वे संविधान और कानून के तहत राज्यों में भेजे जाते हैं, किसी की मर्जी से नहीं? अब उत्तर प्रदेश के एक आइपीएस, एक आइएएस (ऊपर की दोनों घटनाएं) के साथ हुई दो घटनाओं के संदेश क्या हैं? अफसर, नेता और सरकार के गुलाम हो जायें?

सरकार चलानेवाले लोगों द्वारा आइएएस-आइपीएस काडर की स्थिति को कमजोर करने का प्रसंग अर्थपूर्ण है. दरअसल, ऐसे कामों से अफसर निजी तौर पर कमजोर नहीं होंगे, वे सत्ता पार्टी के गुलाम बन जायेंगे. उनका निजी जीवन, संपन्न और बेहतर होगा. पर इससे देश का मजबूत ताना-बाना बिखरेगा.

भारतीय सेना को लेकर उठा विवाद भी क्या है? माना जाता रहा है कि सेना ही हमारी भारतीय एकता की सबसे मजबूत आधार है. कड़ी है. इसलिए पिछले 66 वर्षो में अलग-अलग दलों के लोग सत्ता में बैठे, पर कभी भी सेना को सार्वजनिक बहस में घसीटने या मलिन करने की कोशिश नहीं हुई. यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में भारतीय सेना भी विवाद में है. पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की ईमानदारी सब जानते हैं. वह सरकार से कई मुद्दों पर सहमत नहीं रहे. सेना की स्थिति के लिए खुल कर लड़े. हथियार, गोला-बारूद के बारे में प्रधानमंत्री को लिखा. हथियार खरीद में दलाली का मामला उठाया. सूचना और चर्चा तो यह भी है कि उनके पास सरकार के टॉप लोग यह प्रस्ताव लेकर गये कि आप चुप रहें. रिटायर होने पर आपको अच्छा पद (यानी गवर्नर का पद) मिल जायेगा. पर वह सच बोलते रहे. उनके खिलाफ अतिगोपनीय सूचनाएं (क्लासिफाइड इंफारमेशन्स) सरकार द्वारा लीक होने लगीं. पूर्व सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा अतिगोपनीय पत्र लीक हुआ. जांच बैठायी गयी, तो पता चला कि यह लीक सरकार के स्नेत से हुआ. इसके बाद दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में झूठी खबर प्लांट की गयी कि जनरल वीके सिंह के कहने पर सेना की एक टुकड़ी दिल्ली कूच कर रही थी. बगावत की मंशा से. इधर जरनल वीके सिंह दो सप्ताह पहले नरेंद्र मोदी की सभा में गये, रेवाड़ी. उसके बाद उसी बड़े अंग्रेजी अखबार में खबर छपी कि पूर्व सेनाध्यक्ष द्वारा गठित आर्मी इंटेलिजेंस यूनिट क्या काम कर रही थी? याद रखिए, यह सब केंद्र सरकार की अतिगोपनीय सूचनाएं हैं. अत्यंत महत्वपूर्ण. सरकारी खजाने की तरह इनकी सरकारी चौकसी-हिफाजत होती है. उस खजाने से सूचनाएं बाहर हो रही हैं. जनरल वीके सिंह अपनी सफाई में उतरे. अपने सम्मान की रक्षा के लिए. उन्होंने मांग की कि सरकार बताये, ये अतिगोपनीय रिपोर्टे कैसे लीक हो रही हैं? इनकी जांच हो. मुकदमा चले. देशद्रोह के आरोप के तहत संबंधित लोगों को सजा हो. इस क्रम में उन्होंने यह भी कह दिया कि जम्मू कश्मीर में मंत्रियों को भी काफी पैसे दिये जाते रहे हैं. बाद में सुधार करते हुए कहा कि यह आज से नहीं, आजादी के बाद से ही हो रहा है. ये पैसे निजी इस्तेमाल के लिए नहीं, समाज में भाईचारा, सद्भावना और राजनीतिक स्थायित्व के लिए हो रहा है. इसके बाद पूर्व सेनाध्यक्ष ने अंग्रेजी के उस बड़े अखबार के संपादक और उनकी पत्नी के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बड़े गंभीर आरोप लगाये हैं. एक नहीं, अनेक. नैतिक तकाजा तो यह था कि वह संपादक तुंरत जवाब देते. पर अब तक वह चुप हैं. फिर कांग्रेस के एक बड़े नेता ने कहा, पूर्व सेनाध्यक्ष को चुप रहना चाहिए. सीक्रेट, सीक्रेट होता है. रिटायर होने के बाद, बातें गुप्त रखनी चाहिए. अब भारत सरकार के गृहमंत्री पूछते हैं कि पूर्व सेनाध्यक्ष, उन नेताओं के नाम बतायें, जिन्हें पैसे दिये गये? अब गौर करें कि सेना की अतिगोपनीय सूचनाएं कैसे लीक हो रही हैं?  पूर्व सेनाध्यक्ष, गृहमंत्री और कांग्रेसी नेता इन गोपनीय सूचनाओं पर सार्वजनिक विवाद कर रहे हैं? पूर्व सेनाध्यक्ष ने पलटवार करते हुए कहा है कि क्या अब इस बात पर सार्वजनिक रूप से बहस होगी कि आइबी और रॉ कैसे काम करते हैं? इंटेलिजेंस और रॉ के कामकाज की सार्वजनिक समीक्षा होगी? क्या ऐसे विवादों से सेना और भारत सरकार मजबूत हो रही हैं? सेना अंदर से गुटबाजी की शिकार हो, वहां अफसर एक-दूसरे की, भारत के नेताओं की तरह शैली, संस्कृति और परंपरा में धोती खोलना शुरू करें, सार्वजनिक मंचों पर, तो बचेगा क्या?

नौकरशाही-सेना प्रसंग के बाद अब न्यायपालिका से संबंधित सरकार की नयी-ताजा रणनीति भी जान लें? इंदिरा गांधी के जमाने में (1974-75 के आसपास) उनके समर्थक कांग्रेसी सांसद शशिभूषण ने ब्यूरोक्रेसी और न्यायपालिका में कमिटेड ब्यूरोक्रेसी और कमिटेड ज्यूडिशियरी की बात की थी. इस तरह वह सीमित तानाशाही के वकील थे. बाद में इमरजेंसी भी लगी. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में साहस के साथ सच फैसला  लिखनेवाले, तब एकमात्र महान जज एचआर खन्ना को भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की लाइन से अलग दिखनेवाले जजों को उन्होंने एक साथ निकालने की योजना बनायी और जस्टिस एएन राय को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया. सुप्रीम कोर्ट के तीनों जजों से वह जूनियर थे. उन तीन जजों ने तब त्यागपत्र दे दिया. अब यूपीए-2 की सरकार जजों की नियुक्ति के बारे में जो कदम उठाने जा रही है, उससे न्यायपालिका की स्वायत्ता और स्वतंत्रता खतरे में होगी. भ्रष्ट राजनेताओं को जेल जाने से बचाने के अध्यादेश से भी अधिक खतरनाक बिल है. राहुल गांधी को आवाहन करना चाहिए कि उनके नेतृत्व में जनता चौक -चौराहे पर इसका विरोध करे. अब तक जजों की नियुक्ति का काम कॉलेजियम (जजों की नियुक्ति की एक कार्यकारी परिषद या समिति, जिसमें सभी की शक्तियां समान होती हैं) द्वारा होती रही है. इस नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर भी कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. यह सही है कि यह प्रक्रिया फूलप्रूफ नहीं हैं. इसमें गंभीर दोष हैं. तो क्या एक बुराई को खत्म करने के लिए उससे बड़ी बुराई को अपनाना होगा? 05.09.13 को संसद में केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति के बारे में नये कानून का प्रस्ताव पेश किया है. यह 120वां संविधान संशोधन बिल 2013 है. ज्यूडिशियल एप्वाएंटमेंट कमीशन बिल 2013 (न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक 2013). इसका मकसद बताया गया है, टू हैव बेस्ट जजेस फॉर ए बेटर फ्यूचर (बेहतर भविष्य के लिए श्रेष्ठ जजों की नियुक्ति). इस बिल से सरकार के पास जजों की नियुक्ति के असीमित अधिकार होंगे. एक जाने-माने न्यायविद् कहते हैं कि ये दोनों बिल राक्षसी हैं. ये संविधान के मूलभूल ढांचे को तबाह कर देंगे. इस बिल के बारे में दिल्ली के बार एसोसिएशन के सेमिनार में मुख्य न्यायाधीश ने कोई टिप्पणी नहीं की. पर जिस ताबड़तोड़ तरीके से यह बिल लाया गया, उस पर मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम ने टिप्पणी  करते हुए कहा, देयर इज लिटिल होप फॉर रूल ऑफ लॉ (कानून के राज की बहुत कम संभावना है). जाने-माने समाजशास्त्री, आशीष नंदी कहते हैं कि अदालतों की सही चौकसी खासतौर से 2जी मामले के निर्णय के बाद, राजनीतिक शक्तियों की अदालत से नाराजगी का स्वाभाविक परिणाम है, यह बिल. न्याय की प्रक्रिया से नेता-मंत्री नाराज हैं. अब नया कानून अगर बन गया, तो जजों की नियुक्ति के लिए जूडिशियल अप्वाएंटमेंट कमीशन होगा, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे. ऊं ची अदालतों से दो सीनियर जज होंगे. केंद्रीय कानून मंत्री होंगे और दो मशहूर व्यक्ति (इमिनेंट पर्सन) होंगे, जिनका चयन प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता का कॉलेजियम करेगा. जानेमाने न्यायविद् एनआर माधव मेनन से लेकर अनेक लोगों ने इस बिल की मंशा पर शंका जाहिर की है. एक सामान्य व्यक्ति की भाषा में कहें, तो अब नेताओं के इर्दगिर्द घूमनेवाले, जी-हुजूरी करनेवाले चापलूस और चारण लोगों के जज बनने की संभावना बढ़ गयी है. अब आप कल्पना करें कि नेता देश लूटने-अपराध करने के महापाप करेंगे, कई गुना तेजी गति-रफ्तार में, निश्चिंत होकर, क्योंकि उनके शार्गिद ही न्याय की पीठ पर बैठे होंगे. ऐसी स्थिति में अब न्यायपालिका से डर-भय कैसा?  इस स्थिति की कल्पना सिहरन पैदा करती है.

इसी तरह कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि वह सीबीआइ को स्वायत्त नहीं करना चाहती. वह इसका राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है. मुलायम सिंह यादव का मामला, ताजा प्रकरण है. खबर है कि 2007 में सीबीआइ ने अपनी जांच में मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला पाया था. इसने इन दोनों के खिलाफ अवैध संपत्ति और फोर्जरी (जालसाजी) के खिलाफ मामला चलाने का अनुमोदन किया था (देखें इकोनॉमिक टाइम्स - 27.09.13 ). इसके साथ ही सीबीआइ ने इसी तरह सोनिया गांधी के सहायक विसेंट जार्ज, पूर्व रेल मंत्री पवन कुमार बंसल वगैरह के मामलों को भी बंद किया है. सुप्रीम कोर्ट सीबीआइ को स्वायत्त बनाना चाहता है. सीबीआइ निदेशक ने भी सुप्रीम कोर्ट में स्वायत्त बनाने जाने की बात की है. पर केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं. इस तरह केंद्र सरकार, सीबीआइ को मजबूत नहीं कर कमजोर करना चाहती है. अपने पक्ष में इस्तेमाल करना चाहती है. मुलायम सिंह, मायावती और जगन रेड्डी जैसे लोगों को साधने-पुचकारने के लिए. यह भी आरोप है कि विरोधियों को तंग करने के लिए भी केंद्र सरकार इस संस्था का इस्तेमाल करती है. अगर महत्वपूर्ण संस्थाओं का इसी तरह राजनीतिक इस्तेमाल होने लगेगा, तो उनकी विश्वसनीयता खत्म होगी. संस्थाओं की विश्वसनीयता से ही देश चलता है. नेताओं से नहीं. आज भारत में यही हो रहा है. प्रतिपक्ष को भी सीबीआइ, आइबी, सेना वगैरह पर बोलने से परहेज करना चाहिए. अब नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि 2014 चुनाव सीबीआइ लड़ेगी. यह भी गलत है.

इसी तरह आइबी और सीबीआइ के बीच झगड़े का मामला है. आइबी 125 वर्ष पुरानी संस्था है. गुजरात में हुई फरजी मुठभेड़ के मामले में आइबी और सीबीआइ के बीच जिस तरह खुलेआम आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, उससे लगता है कि दो दुश्मन देश आपस में लड़ रहे हैं. मुल्क को चलाने का दायित्व जिन अतिमहत्वपूर्ण संस्थाओं के कंधों पर है, मसलन आइबी, सीबीआइ, रॉ, सेना वगैरह, अगर ये आपस में दुश्मनों की तरह लड़ें, गोपनीय सूचनाएं लीक करें, राजनीतिज्ञों की तरह सार्वजनिक रूप में एक-दूसरे का छीछालेदर करें, तो देश एक रहेगा, किनके बल? ऐसी स्थिति में इस मुल्क को भगवान भी नहीं बचा सकते? आइबी के पूर्व विशेष निदेशक सुधीर कुमार ने सीबीआइ द्वारा उनसे पूछताछ की चर्चा पर गंभीर सवाल उठाये (देखें इकोनॉमिक टाइम्स - 29.07.13). उन्होंने कहा कि आइबी के बड़े अफसरों को निशाना बनाये जाने के पीछे सीबीआइ के निहित स्वार्थ हैं. चर्चा थी कि साजिद जमाल फर्जी मुठभेड़ (गुजरात, वर्ष-2003) में सीबीआइ उनसे भी पूछताछ करेगी. उन्होंने कहा मैंने पचीस वर्षो तक आइबी में काम किया है. आइबी के कामकाज के बारे में मैं किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हूं. इसी तरह शहरी विकास सचिव सुधीर कृष्णा ने एक बयान दिया (देखें हिंदुस्तान टाइम्स - 16.07.13) कि उनके मंत्रालय के उप भूमि और विकास अधिकारी आइबीएस मणि ने 24.06.2013  को जो लिखित शिकायत की है, उनका मंत्रालय उसकी जांच कर रहा है. यह पत्र सीबीआइ-एसआइटी टीम के अफसरों के खिलाफ लिखा गया है. खासतौर से सीबीआइ आइजी सतीश वर्मा के खिलाफ, जो गुजरात मामले में सीबीआइ जांच में मदद कर रहे हैं. मणि, गृह मंत्रलय में अंडरसेक्रेटरी के रूप में वर्ष-2009 में गुजरात हाईकोर्ट के सामने शपथपत्र (एफीडेफिट) दायर करनेवाले अफसर थे. केंद्र सरकार की ओर से. सीबीआइ ने मणि द्वारा उन्हें सताने-आतंकित करने के आरोप का खंडन किया. पर यह मामला ज्यादा उलझा हुआ है. क्योंकि यह गुजरात फर्जी मुठभेड़ से संबंधित फाइल में हेडली के बयान से जुड़ा है. मणि ने अपनी शिकायत में यह कहा कि आइजी सतीश वर्मा ने उन पर शपथपत्र डालने का दबाव डाला. उनके अनुसार वर्मा ने उन पर आइबी के स्टूज (प्रतिनिधि या कठपुतली) होने का आरोप लगाया. मणि के अनुसार वर्मा ने उन्हें आतंकित कर बयानों पर दस्तखत कराये और यह भी कहा कि मुंबई और संसद पर हुए हमले तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित थे. यानी भारत की केंद्र सरकार ने ही संसद व मुंबई (26/11) की घटनाएं करायी, इस बयान के बाहर आते ही उग्रवादियों से सहानुभूति रखनेवाले देश के कई संगठनों ने दावा करना शुरू किया कि संसद और मुंबई के 26/11 हमले खुद भारत सरकार ने कराये और पाकिस्तान को बदनाम किया. भारत को ही बदनाम करने का यह काम आइबी-सीबीआइ झगड़े का परिणाम है. केंद्र सरकार के अफसर आपसी झगड़े में यह एक -दूसरे के बारे में कह रहे हैं. अंदर से जांच क्रम में किसने-किससे क्या कहा? पर बाहर की दुनिया में प्रचार हो गया कि संसद हमले और मुंबई 26/11 के मामले, भारत सरकार के प्रायोजित मामले हैं. जो बातें या आरोप लगाने का साहस पाकिस्तान के हमलावर आतंकवादी भी नहीं कर सकते थे, वह अंदर से हम खुद पर लगा रहे हैं. कालिदास की तरह जिस शाख पर बैठे हैं, उसे ही अपनी कुल्हाड़ी से काट रहे हैं. ऐसी स्थिति में इस देश को तोड़ने के लिए बाहरी हमलावर क्यों चाहिए? बाहर के दुश्मन आतंक के बल जो काम नहीं कर सकते, वह खुद हम एक-दूसरे के खिलाफ कर रह हैं. सेठ अमीचंद (जिसके सौजन्य से अंग्रेज भारत की गद्दी पर बैठे) या जयचंद की भूमिका में तो हम हैं ही.
उधर गुजरात सरकार ने आइजी सतीश वर्मा के खिलाफ मामला शुरू किया है. वह गुजरात काडर के ही आइपीएस अफसर हैं. उनके कार्यकाल में, पोरबंदर में एक मुठभेड़ और कस्टडी में दो मौतें हुईं. यह आरोप है. अब ये पुराने आरोप लेकर गुजरात सरकार उन पर कार्रवाई के लिए तैयार है. क्या यह सही और न्यायसंगत है? सतीश वर्मा, मोदी के खिलाफ जांच में हैं, इसलिए उनके खिलाफ गुजरात सरकार पुराने मुर्दे उखाड़ रही है. लगता है, यह दो देशों के बीच का मामला है. ऐसे मुल्क चलता है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2009-13 के बीच देश में 555 फर्जी मुठभेड़ हुई हैं. पिछले चार वर्षो में उत्तर प्रदेश में इस तरह की 138 मौतें हुई हैं. ये आंकड़े गृह मंत्रलय द्वारा जारी किये गये हैं. अब मोदी समर्थक यह सवाल उठा रहे हैं कि तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव, श्री पिल्लई ने जिन्हें आतंकवादी कहा था, उनके मारे जाने पर यह विशेष जांच चल रही है, तो अन्य 555 फरजी मुठभेड़ों की (जिनकी पुष्टि केंद्र सरकार में गृह मंत्रलय आंकड़ा कर रहा है), दोबारा जांच क्यों न हो?

दरअसल, मामला कहीं और है. झगड़ा, कांग्रेस और मोदी के बीच है. इसमें गुजरात और केंद्र के बड़े अफसर भी अपने-अपने दावं खेल रहे हैं. अफसरों की भी राजनीति है. वे आपस में बंटे हुए हैं, अपने-अपने हित-निजी स्वार्थ के तहत. पर क्या मोदी या कांग्रेस की आपसी लड़ाई बड़ी है या देश बड़ा है? मोदी के कार्यकाल में अगर फरजी मुठभेड़ हुई हैं, तो आइबी-सीबीआइ या आइपीएस अफसरों को सार्वजनिक रूप से लड़ाये बिना, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कराये बिना ट्रायल का कोई दूसरा रास्ता नहीं हो सकता? सार्वजनिक फजीहत, भारत सरकार की ये सबसे बड़ी संस्थाएं एक -दूसरे की करें, यह सही है? केंद्र सरकार की ये संस्थाएं मजबूत रहेंगी, तो देश मजबूत रहेगा. इन संस्थाओं की साख संदिग्ध होगी, तो मनोवैज्ञानिक रूप से देश बंट जायेगा. क्या आपसी झगड़ों से हम संस्थाओं को ऊपर नहीं रख सकते? गद्दी पर लोग आयेंगे-जायेंगे, पर यह मुल्क एक रहे, यह बड़ा मामला है. हम भूल गये हैं कि 2000 वर्षो बाद हमने भारत की यह भौगोलिक एकता पायी है, उसे हम खुद ही छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं. 

देश के गंभीर लोगों और युवा पीढ़ी को इस पर गौर करना चाहिए. केंद्र की कांग्रेस सरकार, अपराधी राजनेताओं को बचाने के लिए जिस तरह ताबड़तोड़ अध्यादेश लायी, कांग्रेस के मिलिंद देवड़ा और राहुल गांधी ने इसका विरोध कर एक नयी उम्मीद पैदा की है. सूचना थी कि जयराम रमेश, वीरप्पा मोइली ने भी इसका विरोध किया था. फिर भी सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की सरेआम हत्या करने पर कांग्रेस सरकार तुली थी. उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मजाक बनाना था. इसलिए इमरजेंसी की तरह फटाफट अध्यादेश लाने का फैसला हुआ. कौन-सा पहाड़ टूट रहा था? क्या इमरजेंसी पैदा हो गयी थी कि अचानक अपराधी राजनेताओं को बचाने का यह अध्यादेश लाना पड़ा? जिस सीमा पर भारतीय जवानों के गरदन काटे जा रहे हैं, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी (या पाकिस्तानी सेना, कौन जाने?) सेना और पुलिस पर हमारे देश में आकर तबाही मचा रहे हैं, वहां तो सरकार ने यह इमरजेंसी या जल्दबाजी कभी नहीं दिखायी? तय होना चाहिए कि शहीद होनेवाले जवानों का मामला सरकार के लिए इमरजेंसी का मामला है या अपराधी नेताओं को जेल जाने से बचाने का प्रसंग? अध्यादेश तो इमरजेंसी काम के लिए ही लाये जाते हैं, न! संसद में आपके पास बहुमत है, आप वहां कानून बना कर यह काम कर सकते थे. पर किन हालात में फटाफट यह फैसला हुआ? क्या एक-दो अपराधी नेताओं के जेल जाने से देश टूट रहा था? आपात स्थिति पैदा हो रही थी? ठीक कहा है, राहुल गांधी ने कि यह अध्यादेश फाड़ कर फेंक दें. हालांकि राहुल गांधी की इस सहज प्रक्रिया से राजनीति में बड़ा बवाल खड़ा होनेवाला है कि यह देश कौन चला रहा है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी? यह सवाल उठ भी रहा है कि इस मुल्क की व्यवस्था पुराने कम्युनिस्ट राज्यों-सरकारों (रूस वगैरह) की तरह हो गयी है. दिखावे के लिए कोई गद्दी (प्रधानमंत्री) पर है, पर सत्ता कहीं और? यह बहस अलग है. पर राहुल गांधी ने जिस ईमानदारी, सहजता से यह प्रतिक्रिया दी है, वह आज की राजनीति में उम्मीद बढ़ानेवाली बात है. कल्पना करिए कि देश की राजनीति में कांग्रेस के अंदर राहुल गांधी की यह प्रो-पीपुल (जनोन्मुखी) धारा और मजबूत होती है, राहुल-धारा कांग्रेस की मुख्यधारा बनती है, तो देशहित में यह बड़ी बात होगी. दूरगामी असर डालनेवाली. राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में दूसरे युवा तुर्क के उदय की जरूरत है. 2014 चुनावों में किसकी सरकार बने, इसके लिए नहीं. स्वस्थ्य राजनीति, देश की एकता को पुख्ता करनेवाली राजनीति के लिए. इस धारा के उदय, प्रस्फुटन और फलने-फूलने की जरूरत है.

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