चौकीदार ईमानदार ही चाहिए....
सवाल देश का हो तो ट्रैक रिकार्ड वाला ही चाहिए !
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रघुराम जैसे ज्ञानी किताबी हैं, दूसरों की किताबों से जो पहले पढ़ा वही बाद में औरों को पढ़ाया. इसमें उनका रोल एक संवाहक का है, जो किसी का सामान किसी और को पहुंचाता है. हमारी बिडंबना है, जब हम अपनी भाषा में बात करते हैं तो हम बेहद सामान्य और निचले स्तर के मान लिए जाते हैं और जैसे ही हमारे मुह से कुछ अंग्रेजी के शब्द प्रस्फुटित होते है वैसे ही हम एक अति विशिष्ट व्यक्ति मान लिए जाते हैं. एक और बिडंबना है. जब हम किसी गोरी चमड़ी वाले को देखते हैं तो हमारे में धन्य भाव उभर आता है, हम कृतार्थ हो उठते हैं, जबकि गोरी चमड़ी वालों ने हमें 200 वर्षों तक भूना था. वे हमें जब देशद्रोही कह रहे थे, फासी पर लटका रहे थे, बेगुनाह लोगों पर गोलियां बरसा रहे थे तो हमारे बीच के ही लोग अंग्रेजों की हां में हां मिला रहे थे. उनका साथ दे रहे थे. यह कायरता तो थी ही, साथ में यह मानसिक गुलामी थी.
रघुराम राजन इसी मानसिकता की देन थे. देश में कोई काबिल पढ़ा लिखा आर्थिक सलाहकार नहीं मिला और न रिजर्ब बैंक का गवर्नर. नेहरु का मानना था कि आजादी के बाद हमारे पास कोई ऐसा काबिल सैन्य अधिकारी नहीं था, जिसे वे सेनाध्यक्ष बनाते. जनरलों के बीच वे इस बात को रखे. एक जनरल ने साहस जुटा कर कुछ कहना चाहा और उसे बोलने का मौका दिया गया. उसने कहा: 'सर, देश अभी आजाद हुआ है. हमारे पास काबिल प्रधानमंत्री भी नहीं है, तो क्या हमें किसी विदेशी को प्रधानमंत्री बनाना चाहिए?'. बात सटीक थी और सवाल सीधे निसाने पर था तो उसी जनरल से पूंछा गया कि उस पद के लिए कौन योग्य है और उसी जनरल ने के. एम. करिअप्पा नाम लिया, जिसे भारत का पहला सेना प्रमुख बनाया गया.
लंबे समय से सत्ता किसी एक 'पार्टी' के हाथ में रहे, इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर सत्ता किसी 'परिवार' या 'व्यक्ति' की धरोहर बन जाये तो लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाती है. लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भ हैं और आज जो दिख रहा है उससे स्पस्ट होता है कि संवैधानिक संस्थायें 'परिवार और वैयक्तिक' सत्ता से अति अनुग्रहीत हो कर आचरण कर रही हैं. इस स्थिति को राजनीतिक शस्त्र की तरह इस्तेमाल भी किया जा रहा है. सरकार पर आरोप है कि वह संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट कर रही है. पता नहीं, सरकार का क्या काम है! क्या कोई संस्था सरकार से ऊपर और अलग है? यह तो संवैधानिक व्यवस्था है कि कोई संस्था कानून के दायरे में स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्णय ले सके. स्वायत्तता की शर्तें हैं. बिना शर्तों की स्वायत्तता स्वेक्षाचारिता में बदल जाती है, जो अन्तत: निरंकुश तानाशाही होती है. देश पर लगा आपातकाल इसका ज्वलंत उदाहरण है. कांग्रेसी परिवार की सत्ता ने 'जीयो और जीने दो' की जगह 'लूटो और लूटने दो' की नीति अपनाया और लोकतंत्र के हर स्तम्भ में इसको पुखता किया. अब जब लूट पर अंकुश की बात है, तो सभी स्तंभों के लुटेरों की गुटबंदी बनने में देर नहीं लग रही है. सरल सा फंडा है, जब सत्ता कमजोर होगी तो उसमें लूट की गुंजाइश बढ़ जाती है. कमजोर सरकार किसी के हाथ में हो, काम तो ब्लैकमेल से होगा. यह सोच है. और, यह बड़ी लूट और छूट की व्यूहरचना है.
मामला प्रधानमंत्री मोदी जी पर आकर थम जाता है. जब हम किसी सामान्य जनीतिज्ञ या फिर रघुराम जैसे ज्ञानी की बात करते हैं तो स्मरण रखना होगा कि लोग 'प्राप्ति' को लेकर काम करते हैं. रघुराम जैसे लोग इच्छाओं के अधीन हैं, प्राप्ति के लिए लगे हैं, जबकि मोदी जी निष्काम भाव से परमार्थ अर्थात् देश और जन के लिए समर्पित हैं. स्वयं के लिए कुछ भी पाने या संचय की इच्छा नहीं है. इस फर्क को समझना होगा कि अन्य हर कोई पाने या संचय की मनसा लिए मैदान में है. परन्तु मोदी एक अपवाद हैं, जो न पाने और न संचय के लिए सोचते हैं. उनके मन में केवल 'देश' और 'लोगों' का कल्याण है. अगर किसी देश को कोई मोदी जैसा ईमानदार और मुफ्त का चौकीदार मिल जाये, जो अपना बचा हुआ वेतन भी जाते समय आस-पास के लोगों में बांट जाता हो, तो वहां की जनता मूर्ख ही कही जायेगी यदि वह ऐसे चौकीदार को हटा दे! अत: मोदी का बने रहना देश की जरूरत है और हमें मोदी जी को चलते रहने देना चाहिए. मोदी जी जनता की राह पर ही चल रहे हैं. वे जनता की ही यात्रा पर हैं. उनकी मंजिल श्रेष्ठ भारत है. और, हर भारतीय का इससे अलग कोई लक्ष्य नहीं हो सकता. कोई देशद्रोही ही इस लक्ष्य को नहीं चाहेगा. ऐसे लोग आंखों के सामने हैं, जो देश को गिड़गिड़ाता, पिटता, घिसकता, हारता देखना चाहते हैं. हमें सर्वश्रेष्ठ भारत का गौरव पाना है, तो मोदी को ही नेतृत्व का अवसर देना होगा. जिनका देश है, उन्हे देश के गौरव से मतलब है. हमें वही करना है जो देश हित में हो.
By Sri J N Shukla
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