Friday, May 15, 2020

बैंकिंग असंतोष से जूझ रही है.

श्री नरेंद्र मोदीजी,
माननीय प्रधानमंत्री,
भारत सरकार, 
नई दिल्ली

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

'आत्मनिर्भर भारत' साकार हो,
बैंक पेंशनरों की हार्दिक शुभकामनाएं!

एक जमबूत नेतृत्व किस तरह का परिवर्तन ला सकता है, यह आपसे बेहतर कौन समझ सकता है. जन मन में, आप परिवर्तन और सफलता के पर्याय हैं. आप प्ररणामय बनें रहें, यही कामना है.

आपके नेतृत्व आभा में आपके सहयोगियों की चूक, अक्षमता और असफलतायें भी छुप जाती हैं. जन सामान्य आपके सहयोगियों को नहीं, बल्कि आपको देखता है और मान लेता है कि प्रधानमंत्री के रहते मानवीय भूल-चूक हो सकती है, लेकिन मंशा में कोई खोट नहीं हो सकती. आपके पास यह बहुत बड़ी पूंजी है, ईश्वर करे, यह अक्षुण्य बनी रहे.

वित्तीय क्षेत्र, खासकर बैंकिंग, की बदहाल स्थिति की तरफ हम आपका ध्यान खीचते हुए अवगत कराना चाहते हैं कि बैंकिंग एक बिस्फोटक स्थिति में है. ऐसा गहरा असंतोष और उद्वेलन, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद हमनें कभी नहीं देखा. यह स्थिति, 'आत्मनिर्भर भारत' की महान संकल्पना को साकार करने के लिए ठीक नहीं है. अत: इसका संज्ञान लेना अत्यंत जरूरी है.

बैंको में सेवारत, अधीनस्त ने लेकर महाप्रबंधक तक, संभवतः कोई ही ऐसा हो, जो संतुष्टिभाव में हो. बैंकिंग अनिश्चितता की शिकार है, असंतोष का शिकार है, अनदेखी का शिकार है. बावजूद बैंककर्मियों की हर संभव उपलब्धियों, निष्ठा और समर्पण के, उन्हें लगता है, उनके कार्यों, उपलब्धियों, योगदानों और परिश्रम का ठीक से मूल्यांकन, सराहना और कंपेंसेसन नहीं दिया जा रहा है, बल्कि उन्हें नजरंदाज, तिरस्कृत और दोयम दर्जे पर रखा जा रहा है. ऐसी मनोदशा किसी भी संस्थान के लिए आत्मघाती होती है, दीमक की तरह अंदर ही अंदर खोखला करती रहती है.

यह बात तथ्यों पर आधारित है. उनके कार्य निष्पादन, जोखिम, निष्ठा, ईमानदारी के सापेक्ष उनके वेतन और सेवा नियम कमतर है. वैसे हर लोक सेवक से निष्ठा, ईमानदारी और अच्छा निष्पादन अपेक्षित है, लेकिन व्यवहार में जो झोल है, ऐसा नहीं है कि आप अनभिज्ञ हैं. बैंकर्मियों को केन्द्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों के कर्मचारियों/अधिकारियों से कम वेतन मिल रहा है. ऐसा होने का कोई औचित्य नहीं है. 

1970 के दशक में बैंककर्मियों को कन्द्र सरकार के कार्मिकों से बेहतर वेतन मिलता था. क्या इसे राष्ट्रीयकरण को सफल बनाने का दंड माना जाये? इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का गहरा असर बैंककर्मियों के मन:स्थिति पर पड़ रहा है, जिसकी प्रतिकूल छाया बैंकों की कार्य संस्कृति और निष्पादन पर पड़ना स्वाभाविक है. इससे बचनें के उपाय जरूरी हैं!

संबंधित मंत्रालय इस स्थिति के प्रति सर्वथा लापरवाह है. स्व. अरुण जेटली के जाने के बाद, ऐसा कहनें में कोई संकोच नहीं है कि उनके असामयिक जाने से जैसे बैंकिंग की आत्मा ही चली गई. बैंकर्स का वह विश्वास चला गया, जो स्व. जेटली जी में था. होनी को तो टाला नहीं जा सकता और न ही जेटली जी को वापस लाया जा सकता है! यह भी है कि व्यवस्थाएं कभी रुकती नहीं.

वर्तमान वित्तमंत्री की अपनी कुछ नैसर्गिक कठिनाइयां हैं. कठिनाइयां भाषाई हैंं, आभासी हैंं, प्रस्तुतिकरण की हैंं और रही-सही कमीं भावभंगिमा की हैंं, जो बैंकिंग जैसे महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील व्यवसायिक क्षेत्र के लिए सर्वथा अनुपयुक्त और नुकसानदेह है. उनकी सामान्य अभिव्यक्ति भी झिड़कनें जैसी होती है. न सहजता है, न शालीनता है, न सौम्यता है और न ही गंभीरता है. बैंकर्स ऐसे व्यवहार के अभ्यस्त नहीं है. अपनें कामकाजी जीवन में भी उन्हें इन मूल्यों को बनाये रखना होता है. कोई बैंकर अपने परिवार में इन बातों का अनुपालन करता हो या न हो, लेकिन उसे अपने बैंकीय जीवन में सहजता, शालीनता, सौम्यता, गंभीरता धारण ही करना पड़ता है. हमें ताज्जुब  है, किस तरह से मंत्रालय के लोग ऐसे असहज वातावरण में वित्तमंत्री जी के साथ सहज भाव से कार्य कर पाते होगें! 

हमें लगता है, हमारे प्रतिवेदनों को भी अधिकारीगण उनके संज्ञान में लाने से परहेज करते रहें होगे या फिर यह भी कह दिया गया हो कि ऐसे बकवास के लिए उनके पास टाइम नहीं है और दोबारा ऐसे मामले उनके सामनें ही न लायें जायें. अगर ऐसा न होता तो हमारे दर्जनों प्रतिवेदनों मे से किसी पर कार्यवाई न सही पर एकनालेजमेंट तो आता. पर ऐसा नहीं हुआ. आजतक हमारे किसी मेल का उत्तर नहीं आया. किसी भी प्रकरण में कोई निर्णय या राहत नहीं दिखी. अर्थात, किसी विषय को विचार के उपयुक्त नहीं पाया गया? अर्थात, हम जमीन पर बैठे लोग वाकई बेवकूफ हैं. यह कुछ वैसा ही है जैसा ब्रिटिश काल में ब्रिटिश हुकमरान और हम भारतीयों के बीच था.

वित्तीय क्षेत्र के लगभग 20 लाख लोग, चाहे वे कार्यरत हैं या सेवानिवृत्त, वित्तमंत्रालय की अनदेखी के शिकार हैं. वेतन पुनरीक्षण नव. 2017 से ड्यू है। जेटली जी ने जन. 2016 में वेतनवार्ता शुरू करने का आदेश दिया और चार बार रिमाइंड भी किया. ऐसा पहली बार हुआ था कि सरकार ने वार्ता-समझौता को 22 महीनें पहले हरी झंडी दी थी. बेशक बैंककर्मियों में खुशी की लहर दौड़ गई. लेकिन बैंकर्स दबा कर  बैठ गये. मई 2017 में कुछ सुगबुगाहट हुई. और, अभी तक 42/43 बैठकें हो चुकीं हैं, पर समझौता दूर के मील का पत्थर बना हुआ है. खुशी की लहर आज मातम में बदल गई है.

पेंशन रिवीजन 25 वर्षों से लंबित है. वेतन पांच बार रिवाइज, पर पेंशन एक बार भी नहीं! यह कैसी बिडंबना है? पेंशनर्स नें कौन सी गौहत्या कर दी है? पेंशनर्स के स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था नहीं! पेंशनर्स को कौन सा अमृतपान करा दिया गया है, जो वे बीमार नहीं होंगे? एक तरफ सरकार दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सेवा योजना चला रही है, आयुष्मान भारत के तहत साधारण से साधारण आदमीं का स्वास्थ्य सुरक्षित किया जा रहा है, दूसरी तरफ 4.5 लाख बैंक पेंशनरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है; मरें या जीएं, बैंकर्स की बला से.

आदरणीय प्रधानमंत्री जी, वित्त मंत्रालय का प्रिफेस ठीक नहीं है. इसे बदलने की जरूरत है. सरकार का आवरणपृष्ट, अर्थात कवरपेज तो अद्भुत और अकल्पनीय है. बैंकिंग की पटकथा भी बेजोड़, बेमिसाल और समय की कसौटी पर खरी है. लेकिन प्रिफेस बिल्कुल शून्य है. आवरणपृष्ट और पटकथा के बीच प्रिफेस का इस तरह होना संपूर्ण कलेवर को धूमिल कर रहा है. कृपया इसे संज्ञान में लें, क्योंकि आर्थिक मोर्चे पर जो चुनौतियां हैं और 5 बिलियन इकोनॉमी की जो महान संकल्पना है या अब 'आत्मनिर्भर भारत' का संकल्प है, उसे हासिल करने के लिए वित्त मंत्रालय को एक मानवीय चेहरा देना जरूरी है, क्योंकि असंतुष्ट बैंककर्मियों के कंधों में अब इतना दम नहीं बचा है कि वे अवमानना, तिरस्कार और आर्थिक पिछड़ेपन के साथ आगे और बढ़ सकें. 

बैंकिंग असंतोष से जूझ रही है. कोविड-19 को लेकर बैंकिंग की कोई 'मानकीय परिचालन संहिता', अर्थात स्टैंडर्ड आपरेटिंग कोड' नहीं बना. सभी बैंक तदर्थ नीतियों से काम चला रहे हैं, जो भिन्न- भिन्न हैं, भेदभावपूर्ण हैं. कोविड-19, अब हर किसी के जीवन के साथ चलने वाला है और इसके लिए एक 'मानकीय परिचालन संहिता' का होना अपरिहार्य है. इस विषय पर बैंकर्स और मंत्रालय अकर्मण्य है. 

बैंककर्मियों के वेतन पुनरीक्षण में बिलंब जारी है. अत: 10% वेतन वृद्धि हर स्तर पर तदर्थ रूप से कर देने की आवश्यकता है, जिसे वेतन वृद्धि पर समायोजित कर लिया जाये. पेंशन वृद्धि 25 वर्षों से नहीं हुई है. जब तक रीवीजन नहीं होता, बैंकर्स को पेंशन में 10% की तदर्थ वृद्धि कर देनी चाहिए. पेंशनर्स को स्वास्थ्य सुरक्षा दी जाये और कोविड-19 को लेकर एक 'स्टैंडर्ड आपरेटिंग कोड' बनना चाहिए, जो तब-तक लागू रहे, जब-तक कोरोना का प्रकोप है. इससे भेदभाव दूर होगा और संतुष्टि बढ़ेगी.

उम्मीद करता हूं, बिना किसी राग-द्वेष, पूर्वाग्रह या प्रतिशोध के, सरकार विशुद्ध रूप से उत्पन्न परिस्थितियों के आलोक में, विचारोपरांत यथोचित कदम उठायेगी. बैंकिंग में व्याप्त असंतोष को दूर करने का हर संभव प्रयास होगा. बैंककर्मियों में व्याप्त कुंठा दूर होगी और वे नवीन ऊर्जा के साथ अपने दायित्वों का और अच्छे तरीके से पूरा कर सकेंगें.

सादर,

(जे.एन.शुक्ला)
राष्ट्रीय संयोजक
14.5.2020/9559748834
jagat.n.shukla@gmail.com

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